NEWS DESK, NATION EXPRESS RANCHI
ऐतिहासिक करम पूर्व संध्या सांस्कृतिक कार्यक्रम इस बार कोरोना संकट की भेंट चढ़ गया। सरना नवयुवक संघ के बैनर तले इसका आयोजन होता आया है। हालांकि चडरी सरना समिति ने शुक्रवार की रात एक छोटा आयोजन किया, जिसमें बच्चे मास्क लगाकर मांदर की थाप पर कुछ देर तक थिरकते रहे।
केंद्रीय सरना समिति ने जारी की गायडलाइन, अखड़ा होगा सेनिटाइज
- Advertisement -
इधर, करमा की सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं। 29 को सरना धर्मबहनें उपवास में रहेंगी, शाम को विधि-विधान के साथ करम डाली काट नाचते-गाते उसे सरना स्थल व अखड़ा में लाकर स्थापित करेंगी। रात 8 बजे के बाद पांरपरिक रीति-रिवाज से पूजा-अर्चना होगी। 30 को परना और 31 को करम डाली का विसर्जन किया जाएगा।
जारी किया दिशा-निर्देश
करम पूजा पहान पनभोरा मुडा माहतो एवं गणमान्य लोगों की उपस्थिति में कम संख्या में सामाजिक दूरी बनाते हुए पूजा पाठ संपन्न करें। पूजा से पहले अखड़ा को सेनिटाइज करें। पूजा में शामिल लोगों को मास्क लगाना अनिवार्य होगा। पूजा अपने टोला मोहल्ला में ही मनाए बाहरी व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित रहेगा। पूजा से पहले जावा फूल का प्रयोग ना करें
करमा कृषि और प्रकृति से जुड़ा पर्व है, जिसे झारखंड के सभी समुदाय हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। इस पर्व को भाई-बहन के निश्छल प्यार के रूप में भी जाना जाता है। भादो शुक्ल पक्ष की एकादशी को मुख्य पूजा होती है।
झारखंडी पर्व-त्योहारों और सामाजिक-सांस्कृतिक उत्सवों में प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व आराधना एक अनिवार्य विधान है। समय के साथ इस पर्व में भी कई परिवर्तन हुए, लेकिन अब फिर से लोग अपनी जड़ों से जुड़ रहे हैं।
जैसे-जैसे समाज में विभिन्न तरह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक या तकनीक का दबाव पड़ता है वैसे-वैसे समाज की कई गतिविधियां, रीति-रिवाज, परंपरा, रहन-सहन, खान-पान, रहन-सहन में परिवर्तन आते हैं।
कई बार तो ये सार्थक मूल्य व परिवर्तन लेकर आते हैं लेकिन, कई बार वे ऐसी परिस्थितियां लेकर आते हैं, जिससे परंपरागत ढांचे टूट जाते हैं, जैसे- औद्योगिकीकरण, कल-कारखाने, डैम व खनन आदि के कार्यों व उनसे जुड़ी गतिविधियों से झारखंड के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी, सदान व स्थानीय लोगों के जीवन में कई संकटपूर्ण स्थितियां लाते रहे हैं।
औद्योगिकीकरण व शहरीकरण ने आदिवासियों को कई तरह की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, भाषिक, मानसिक, स्वास्थ्य व स्वच्छता संबंधी अनेक जटिलताओं में उलझा दिया है।
फलतः, उनके कई पारंपरिक सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक रोजमर्रा की गतिविधियां- अंग्रेजों के आने के बाद से, पिछले सवा दो सौ वर्षों से बुरी तरह प्रभावित होती रहीं हैं। रांची के आसपास 1960 में निकटवर्ती गांवों में बिना लाउडस्पीकर लगाए पारंपरिक तरीके से मांदर-ढोल आदि बजाकर करम गीत आदि गाए जाते थे।
इसके बाद के वर्षों में लाउडस्पीकर के माध्यम से फिल्मी गाने घुस गए और दोनों समानांतर चलने लगे। 1980 के बाद इनका चलन कुछ ज्यादा बढ़ जाने से फिर परिवर्तन देखा गया व कैसेट युग के आने के बाद पारंपरिक गीतों की जैसे रीढ़ ही टूट गई।
अब आधुनिक स्थानीय गीतों में एक प्रकार की तेजी आ गई और युवा-वर्ग इसका दीवाना हो गया। तब उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस तरह एक समृद्ध परंपरा को त्यागकर वह एक विकृत धारा का हिस्सा बन रहा है।
करम को पारंपरिक अखरा से अलग, कुछ और धार्मिक-स्थानों में अलग तरीके से भी मनाया जाने लगा। शुरू में यह आपसी सौहार्द, एकता तथा संस्कृति-रक्षा का विषय माना गया, लेकिन, बाद में पारंपरिक तौर-तरीकों, विधि-विधानों से छेड़छाड़ के दोषारोपण के बाद आदिवासी समाज में रंजिश का कारण भी बना।
लेकिन, आदिवासी इसे भूलकर, अब पुनः पारंपरिक तरीके से मनाने की कोशिश करता दिखता है। करम, सरहुल आदि त्योहारों में डीजे के असर से भी नाचने, मनाने आदि की परंपरा प्रभावित हुई। एक विकृति आई जरूर।
लेकिन, यह खुशी की बात है कि अपनी परंपरा, भाषा, संस्कृति, इतिहास आदि के पहचान को समझती हुई नई आदिवासी व झारखंड युवा पीढ़ी पिछले कुछ वर्षों से शालीनतापूर्वक, पारंपरिक तरीके से त्योहार मनाने की दिशा में अपनी जड़ों से जुड़ने के लिए प्रयासरत हुई है।
उनमें इसको लेकर एक गंभीरता भी है। अपने परब-त्योहारों को समझते हुए, इसे मनाने की सचेत-प्रवृत्ति युवा-पीढ़ी में लगातार बढ़ रही है। आशा है वर्तमान में आदिवासी, सदान जो कई गांवों, मुहल्लों में मिलकर करम त्योहार मनाते हैं
पारंपरिक मूल्यों, रीति-रिवाजों के साथ-साथ गाने, बजाने, नाचने आदि की जीवंत, मर्यादित-परंपराओं को आगे भी, विपरीत परिस्थितियों, दबावों के बावजूद जीवित रखेंगे, बढ़ाते रहेंगे।
Report By :- Aditi Gupta, NATION EXPRESS, RANCHI