ओवैसी ने बिहार और उत्तर प्रदेश में भाजपा की मदद की थी, अब वो बंगाल में भी हमारी मदद करेंगे :-साक्षी महाराज, भाजपा, सांसद
POLITICAL DESK, NATION EXPRESS, NEW DELHI
क्या सच में भाजपा की मदद करते हैं ओवैसी?
- यूपी और बंगाल में ओवैसी की तैयारी पर नजर रखने वाले कई एक्सपर्ट कहते हैं कि भले ओवैसी भाजपा की मदद नहीं करते हों। लेकिन, उनके चुनाव लड़ने से भाजपा को फायदा होता है।
- एक्सपर्ट्स ओवैसी की मुसलमानों में बढ़ती लोकप्रियता की एक वजह भाजपा को भी बताते हैं। बंगाल के वरिष्ठ पत्रकार दिलीप गिरी कहते हैं कि पिछले छह साल में सांप्रदायिकता बढ़ी है। इसका ओवैसी को फायदा हुआ है।
- भाजपा जिस तरह की धर्म आधारित राजनीति करती है उसका भी फायदा AIMIM को हुआ है। वहीं, कुछ एक्सपर्ट कहते हैं कि कांग्रेस और सेक्युलरिज्म की राजनीति करने वाले दलों की असफलता भी ओवैसी की लोकप्रियता बढ़ने का एक कारण है।
आज से छह साल पहले कोई यूपी-बिहार या बंगाल में ये कहता कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी उनके यहां चुनाव में सीटें जीत सकती है तो आम मतदाता भी ऐसा कहने वाले का मजाक बनाता। लेकिन, अब ऐसी स्थिति नहीं है। ओवैसी और उनकी पार्टी की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है। खासतौर पर मुस्लिम वोटरों के बीच। अब तो भाजपा सांसद साक्षी महाराज ने भी कहा है कि ओवैसी ने बिहार में भाजपा की मदद की थी। अब वो उत्तर प्रदेश में हमारी मदद करने आए हैं और बंगाल में भी करेंगे। साक्षी महाराज ने यूपी में होने वाले पंचायत चुनाव से पहले शुरू हुए ओवैसी के चुनाव अभियान पर ये टिप्पणी की।
आखिर ओवैसी और उनकी पार्टी का इतिहास क्या है? सालों तक हैदराबाद तक सीमित रही ये पार्टी अचानक कैसे देश भर में फैल रही है? क्या ओवैसी बंगाल में ममता को नुकसान पहुंचा सकते हैं? यूपी में 2017 में बुरी तरह हार चुकी ओवैसी की पार्टी इस बार कितनी सफल हो सकती है?
साक्षी महाराज ने भले ही ये बात तंज में कही हो लेकिन, ओवैसी पर भाजपा विरोधी पार्टियां अक्सर ये आरोप लगाती रहती हैं। नवंबर में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के बाद तो कई एक्सपर्ट भी कहते हैं कि राज्य में ओवैसी और उनकी पार्टी महागठबंधन के सत्ता से दूर रहने का एक बड़ा फैक्टर थी।
आखिर ओवैसी और उनकी पार्टी का इतिहास क्या है? सालों तक हैदराबाद तक सीमित रही ये पार्टी अचानक कैसे देश भर में फैल रही है? क्या ओवैसी बंगाल में ममता को नुकसान पहुंचा सकते हैं? यूपी में 2017 में बुरी तरह हार चुकी ओवैसी की पार्टी इस बार कितनी सफल हो सकती है? आइये जानते हैं…
कौन हैं असदुद्दीन ओवैसी और क्या है उनकी पार्टी का इतिहास ?
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- असदुद्दीन ओवैसी हैदराबाद से लोकसभा सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) के अध्यक्ष हैं। ओवैसी का संगठन करीब 92 साल पुराना है। इसकी स्थापना 12 नवंबर 1927 को नवाब महमूद खान ने की थी। पहले इसका नाम मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (MIM) था। तब ये एक धार्मिक और सामाजिक संस्था थी।
- आजादी से पहले ये संगठन हैदराबाद को एक अलग मुस्लिम राज्य के रूप में स्थापित करने के पक्ष में था। जब हैदराबाद का भारत में विलय हुआ तो इस संगठन पर बैन लग गया। 1957 में इस संगठन पर से बैन हटा और ये AIMIM के रूप में एक राजनीतिक संगठन के रूप में अस्तित्व में आया।
- उस वक्त इसकी बागडोर हैदराबाद के मशहूर वकील अब्दुल वाहेद ओवैसी के पास आ गई। पार्टी ने अपने नाम में न सिर्फ ऑल इंडिया जोड़ा बल्कि अपने संविधान में बदलाव किया। तब से अब तक इस पार्टी पर ओवैसी परिवार का ही कब्जा है।
- अब्दुल वाहेद 18 साल तक पार्टी अध्यक्ष रहे। उनके निधन के बाद वाहेद के बेटे सलाहुद्दीन पार्टी के अध्यक्ष बने और 1975 से 2008 तक 34 साल लगातार पार्टी अध्यक्ष रहे। उनके निधन के बाद से सलाहुद्दीन के बेटे असदुद्दीन ओवैसी अध्यक्ष हैं।
- अध्यक्ष ही नहीं, विधानसभा में भी ओवैसी परिवार का सदस्य ही पार्टी का नेता होता है। 1962 से 1984 तक सलाहुद्दीन आंध्र प्रदेश विधानसभा में पार्टी के नेता थे। 1994 से 2004 तक असदुद्दीन ओवैसी आंध्र विधानसभा में पार्टी के नेता रहे। 2004 के बाद असदुद्दीन के भाई अकबरुद्दीन आंध्र और अब तेलंगाना विधानसभा में पार्टी के नेता हैं।
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कैसे बढ़ रही है AIMIM की लोकप्रियता?
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- 1962 में पहली बार सलाहुद्दीन ओवैसी AIMIM से जीतकर विधानसभा पहुंचे। तब से लगातार AIMIM का कम से कम एक विधायक जरूर हैदराबाद की किसी सीट से जीतकर विधानसभा पहुंच रहा है। पार्टी पिछले तीन चुनाव से हैदराबाद जिले की 15 विधानसभा सीटों में से सात सीटें जीत रही है।
- 1984 में सलाहुद्दीन ओवैसी हैदराबाद लोकसभा सीट से जीते। तब से इस सीट पर ओवैसी परिवार का कब्जा है। पहले सलाहुद्दीन और अब असदुद्दीन ओवैसी यहां से लगातार जीत रहे हैं।
- AIMIM का असली विस्तार असदुद्दीन ओवैसी के अध्यक्ष बनने के बाद शुरू हुआ। 2012 में पहली बार AIMIM ने हैदराबाद के बाहर जीत दर्ज करनी शुरू की। तब महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले में म्युनिसिपल काउंसिल में 11 सीटें जीतीं। 2013 में पार्टी ने कर्नाटक में दस्तक दी और यहां भी बीदर और बसवकल्याण के म्युनिसिपल इलेक्शन में छह सीटें जीतीं।
- 2014 में पहली बार हैदराबाद के बाहर AIMIM को विधानसभा चुनाव में जीत मिली। पार्टी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीतीं। एक मुंबई की बायकुला और औरंगाबाद की औरंगाबाद सेंट्रल सीट पर उसे जीत मिली।
- 2019 में भी महाराष्ट्र में उसे दो सीटें मिलीं। हालांकि, इससे पहले भी पार्टी 1999 और 2009 में यहां चुनाव लड़ चुकी थी। लेकिन उसे हार मिली थी। 2020 में ओवैसी की पार्टी ने बिहार में पांच सीटें जीतकर अपना दायरा और बढ़ा लिया।
अब कहां-कहां चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही AIMIM?
- बिहार में मिली सफलता के बाद ओवैसी ने सबसे पहले बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया। इसके बाद उनकी पार्टी साल के अंत में होने वाले गुजरात महानगरपालिका और निकाय चुनाव में भी उतरने की तैयारी कर रही है। वहीं, उत्तर प्रदेश में इसी साल होने वाले निकाय चुनाव और 2022 के विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी ओवैसी की पार्टी ने कमर कस ली है।
क्या बंगाल में ममता को नुकसान पहुंचा सकते हैं ओवैसी?
- बंगाल में लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे दिलीप गिरी कहते हैं बंगाल का वो इलाका जो बिहार के सीमांचल और बांग्लादेश बॉर्डर से लगता है वहां का मुसलमान ओवैसी की ओर जा सकता है। इनमें से अधिकतर मुसलमान बहुत ही गरीब हैं। अगर ऐसा होता है तो 40 से ज्यादा सीटों पर ओवैसी असर डाल सकते हैं। और, ऐसा होने पर फायदा भाजपा को ज्यादा होता दिखता है। लेकिन वो जो पढ़ा-लिखा है, जो बांग्ला बोलता है वो ममता के साथ ही रहेगा।
- सीनियर जर्नलिस्ट शिखा मुखर्जी कहती हैं कि बिहार के सीमांचल इलाके में जहां मुसलमानों की आबादी ज्यादा है वहां ओवैसी को फायदा हुआ है, लेकिन बंगाल की स्थिति अलग है। यहां दो तरह के मुसलमान हैं। एक जो बांग्ला बोलते हैं और एक जो गैर बांग्लाभाषी हैं। बांग्लाभाषी मुसलमान ओवैसी को सपोर्ट नहीं करेंगे। जबकि बिहार से सटे जिन इलाकों में गैर बांग्लाभाषी मुस्लिम हैं, उनसे ओवैसी को उम्मीदें हैं। लेकिन, बिहार की तरह ओवैसी के खाते में वोट शिफ्ट होगा, यह कहना मुश्किल है।
यूपी में तो पहले भी लड़ चकुे हैं, 2022 में ऐसा क्या अलग हो जाएगा?
- उत्तर प्रदेश के सीनियर जर्नलिस्ट रतनमणि लाल कहते हैं कि 2017 में ओवैसी को यूपी में कैंडिडेट नहीं मिल रहे थे। इस बार ऐसा नहीं है, उन्हें गठबंधन का भी मौका मिला है। ओवैसी मुस्लिम ध्रुवीकरण की राजनीति करते हैं। वो भले ज्यादा सीट न जीत पाएं लेकिन, मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण तो करेंगे ही।
- लाल कहते हैं कि ध्रुवीकरण होने पर सबसे ज्यादा नुकसान सपा को होगा, क्योंकि अभी यूपी का ज्यादातर मुस्लिम वोटर सपा के साथ है। लाल कहते हैं कि सपा को जितना ज्यादा नुकसान होगा, उससे सीधा फायदा भाजपा को पहुंचेगा।
- यूपी के ही एक और सीनियर जर्नलिस्ट समीरात्मज मिश्रा कहते हैं कि 2017 और 2022 के चुनावों में बहुत फर्क है। 2017 में 5 साल अखिलेश सरकार के पूरे हुए थे और ओवैसी की पार्टी भी यूपी में उतनी मजबूत नहीं थी और न ही किसी पार्टी के साथ गठबंधन ही था।
- मिश्रा कहते हैं कि ओवैसी की पार्टी को मुसलमानों की पार्टी के तौर पर फायदा मिल सकता है। केंद्र और राज्यों में भाजपा सरकार आने से मुसलमानों को एहसास हो गया है कि हम अकेले दम पर सरकार नहीं बना सकते। इसलिए वो सोचने लगा है कि ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधि संसद या विधानसभा में भेजें ताकि उसका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई हो।
- मिश्रा कहते हैं कि ओवैसी इस वोटिंग पैटर्न को समझ चुके हैं। वहीं, यूपी में नाकाम विपक्ष भी इसका बड़ा जिम्मेदार है। 2022 में ओवैसी अपनी पुरानी रणनीति के मुताबिक मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में मुस्लिम कैंडिडेट खड़े करेंगे। इन इलाकों में निश्चित तौर पर मुस्लिम वोटों का रुझान ओवैसी की तरफ ही होगा। मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा तो भाजपा को ही होगा लेकिन, किसको कितना नुकसान होगा, यह कहना मुश्किल है।
Report By :- NATION EXPRESS BUREAU TEAM